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बुधवार, 9 मार्च 2011

”””””वो भोली गांवली”””’

कविता ””’
”””””वो भोली गांवली”””’
जलती हुई दीप बुझने को ब्याकुल है
लालिमा कुछ मद्धम सी पड़ गई है
आँखों में अँधेरा सा छाने लगा है
उनकी मीठी हंसी गुनगुनाने की आवाज
बंद कमरे में कुछ प्रश्न लिए
लांघना चाहती है कुछ बोलना चाहती है
संम्भावना ! एक नव स्वपन की मन में संजोये
अंधेरे को चीरते हुए , मन की ब्याकुलता को कहने की कोशिश में
मद्धम -मद्धम जल ही रही है
””””””””वो भोली गांवली ””””’सु -सुन्दर सखी
आँखों में जीवन की तरल कौंध , सपनों की भारहीनता लिए
बरसों से एक आशा भरे जीवन बंद कमरे में गुजार रही है
दूर से निहारती , अतीत से ख़ुशी तलाशती
अपनो के साथ भी षड्यंत्र भरी जीवन जी रही है
छोटी सी उम्र में बिखर गई सपने
फिर -भी एक अनगढ़ आशा लिए
नये तराने गुनगुना रही है
सांसों की धुकनी , आँखों की आंसू
अब भी बसंत की लम्हों को
संजोकर ”’साहिल ”” एक नया सबेरा ढूंढ़ रही है
मन में उपजे असंख्य सवालों की एक नई पहेली ढूंढ़ रही है
बंद कमरे में अपनी ब्याकुलता लिय
एक साथी -सहेली की तालाश लिए
मद भरी आँखों से आंसू बार -बार पोंछ रही है
वो भोली सी नन्ही परी
हर -पल , हर लम्हा
जीवन की परिभाषा ढूंढ़ रही है ”””’
00000लक्ष्मी नारायण लहरे ,युवा साहित्यकार पत्रकार
छत्तीसगढ़ लेखक संघ संयोजक -कोसीर ,सारंगढ़ जिला -रायगढ़ /छत्तीसगढ़

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